उपनिषद ज्ञान भाग ६ ~ Upanishad wisdom for better life.
■ प्रियजन सबको मेरा प्रणाम. 🙏
उपनिषद ज्ञान भाग ६ ~
॥ अनेजदेकं मनसो जवीयो नेनदेवा आप्नुवन्पुर्वमर्षवत् ।
तद्धावतोऽन्यानत्येति तिष्ठत्तस्मिन्नपो मातरिष्वा दधति ।४॥
शब्दार्थ : यह परमात्मा कंपन तक नहीं करता फिर भी मन से अधिक वेगवान है, इंद्रिय उसे प्राप्त नहीं कर सकती । वह इंद्रियों से भी पहले वर्तमान है । यह स्थिर है, फिर भी दौड़ते हुए लोगों को व्यक्ति या प्राणी सब को पीछे छोड़ देता है । उसी के कारण वायु जो स्वयं हल्की है अपने से भारी जल को उठा लेती है ।
भावार्थ -
● कहते हैं कि परमात्मा स्थिर है l आकाश की तरह सभी जगह व्याप्त है तो हिलेगा कंहा ? यह है सब जगह । यह नहीं ऐसी जगह ही नहीं है । तो वह जाएगा कहां और आएगा कहां ? स्थिर है; लेकिन फिर भी मन से भी वेगवान इसलिए है कि वह सब जगह पहुंचा हुआ है । हमारा मन एक क्षण में किसी दूरस्थ सितारे पर जा पहुंचेग। लेकिन वह उसके भी आगे पहलेसे हि है । इसलिये एसा काव्यात्मक भाव से बोला है ।
● और कहते हैं कि यह परमात्मा प्राप्त करने के लिए इंद्रिय पर्याप्त नहीं है । इंद्रिय मतलब नाक, कान आंख, त्वचा व जिव्हा । यह सब ज्ञान लेने वाली इंद्रिय है; जो बाहर की हर चीज वह समझ लेती है । यह पंच इंद्रिय इस परम ब्रह्म को पा नहीं सकती; क्योंकि इसका रूप, रस, गंध... कुछ है ही नहीं । देखोगे कैसे ? सुनोगे कैसे ?
● उसे उस परब्रह्म को तो अपने अंदर महसूस करना पडेगा कभी एक क्षण भी मिल जाए महसूस करने के लिए तो भी काफी हो जाता है । उसमें जो आनंद है वह कहीं भी नही मिलेगा । लेकिन इंद्रियों से परे होना पड़ेगा ।
● इंद्रियों के आनंद अपनी जगह है ही । पर उनकी एक मर्यादा है । कितना पाओगे ? कितना खाओगे ? बहुत ज्यादा धन पाया है तो उसे रखोगे कहां ? और फिर रखने की चिंता - कैसे रखें ?
■ { पर गोंदवलेकर महाराज कहते हैं की कमाना तो है ही और संचय भी करना है । पर धनसंचय करो इतना के वृद्ध काल में अच्छे से नॉर्मल लाइफ जी सको । उससे ज्यादा का कुछ उपयोग भी नहीं है । ज्यादा ज्यादा ज्यादा करके पाओगे तो कहां उसका आनंद ले पाओगे ? परसों अपरिग्रह का अर्थ मैने थोड़ा गलत बताया था - उसका सही अर्थ है संचय मत करो । लेकिन हम कहते हैं कि ठीक है थोड़ा संचय भी जरूरी है । कफल्लक रहके वृद्धावस्था मुश्किल हो जाएगी । }
और परब्रह्म का आनंद अपनी जगह । वह अमर्याद हो सकता है लेकिन उसकी भी मर्यादा है । क्योंकि हम हर क्षण परब्रह्म के आनंद में नहीं रह सकते । यह हमारी मर्यादा भी कह सकते हैं ।
आगे कहते हैं कि परमात्मा हर जगह होने के कारण ही सबको पीछे छोड़ देता है । और सब कुछ वही तो है । वह बिना हिले डोले ही जैसे वायु दिखता नहीं है फिर भी समुद्र के जल को आकाश में उठा सकता है; इस तरह यह पर ब्रह्म बिना हिले डोले बिना दिखे हुए भी सब कुछ हिलाता है, चलाता है, करता है और करवाता है । जय जगत् 🙏
हरि 🕉️ तत्सत् ।।
आपका अपना, डॉक्टर प्रसाद फाटक. पुणे. भारत.
9822697288
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