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उपनिषद ग्यान भाग ७ ~

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ॐ तदेजति तन्नेजति तद्‌ दूरे तद्वन्तिके ।  तदन्तरस्य सर्वस्य  तदु सर्वस्यास्य बाह्यत : ।।  इशोपनिषद  ।। ५ ।।  ■ शब्दार्थ - वह चलता है वह नही चलता। वह दूर है वह निकट भी है । वह इसके सबके अंतर मे है और इसके सबके बाहर भी है । ■ भावार्थ : ये जो परब्रह्म है वह हिलता भी नही है फिर भी वह सब को पीछे छोड देता है ।   हमने देखा है के वो परब्रम्ह सभी जगह पर मौजूद है तो हिलेगा कैसे ? हिलने के लिए उसकी जगह ही नहीं है । स्थिर है । भगवद्गीता मे भी आपको लिखा मिलेगा कि परमात्मा स्थिर है / स्थाई है ।  ■ और कहां है की यह सबको पीछे छोड़ देता है । क्योंकि कैसे हैं की यदि आप निकलते हो चाहे जिस वेग से निकले चाहे मन के वेग से निकले अब 1 मिनट के अंदर जहां पहुंचोगे;   उसके पहले ही वह परब्रह्म पहुंच चुका है । क्यों कि वह है ही सब जगह ।   परमात्मा की सर्व व्यापकता और प्रभुता दिखाने के लिए यह श्लोक का चयन मुनियों ने किया था । अभी मन के बारे में देखते हैं - मन बहुत वेगवान है ; उसके जरी ये आप एक क्षण में हम यहां से अमेरिका पहुंच सकते हैं , चांद पर पहुंच ...