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Showing posts from August, 2024

उपनिषद ज्ञान भाग ~ १० Upanishada wisdom for all.

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उपनिषद ज्ञान भाग ~ १० इशोपनिषद श्लोक ८ ^  ☆ थोड़ा बचा हुआ विवरण बता रहा हूं :  ■ विष्णु सहस्त्रनाम के छठे श्लोक में अज्ञात नाम के ऋषि मुनि कहते हैं कि; वह विश्वकर्मा है - उसके कर्म से ही यह पूरा विश्व प्रकट हुआ है , निर्मित हुआ है ।  ● और फिर हमारे ज्ञानेश्वर माऊली उनकी किताब अमृतानुभव में कहते है की; वही शिव तत्व है जिसे हम आत्मतत्व कहते है; वही पलट कर शक्ति के रूप में अपनी लीला / माया दिखता है । और तब ही यह संपूर्ण प्रकृति का विकास होता है ।  ● इसीलिए विष्णु सहस्त्रनाम के पहले श्लोक में उसे विश्व, विष्णु मतलब : ऑल परवेडिंग व पूरा यूनिवर्स कहा है । ■ और कहते हैं यह सृष्टि की निर्मिती, उसका भरण पोषण और उसका विनाश मतलब आदि मध्य अंत ये जो सब तीनों बातें हैं ; जिन्हें करने वाले हैं ब्रह्मा विष्णु और महेश हैं; उन सबका मिलकर जो कार्य है वह इस परब्रह्म का ही तो है । ¤《 वैसे तो वह निर्गुण निराकार होने के कारण कुछ करता नहीं है पर मानते हैं कि वो करता है; ताकि हमें अहंकार ना हो । विरुद्ध बातें एक साथ समझना थोड़ा मुश्किल तो है; लेकिन बहुत गहरी सोच करते जाओगे ...

उपनिषद ग्यान भाग ~ ९ Upanishad wisdom 9

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उपनिषद ज्ञान भाग ~ ९ ■ इस विषय का वीडियो मेरे यूट्यूब चैनल पर देखना ना भूले क्योंकि उस वीडियो को देखकर इस विषय का बहुत आनंद और उत्साह आपको मिलेगा । स॒पर्यगाच्छक्रमकायमव्रणमस्नाविरम् शुद्धमपापविद्धम्‌ । कविर्मनिषी परिभूः स्वथंभूर्याथातथ्यतोऽर्थान्व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः ।। ८॥  इशोपनिषद । ■ इस श्लोक में परब्रम्ह का संपूर्ण वर्णन किया है । अर्थ : ●  वह ( परब्रम्ह ) सब जगह रहता है । वह शुद्धता / purity की चरम-सीमा है । वह तेजस्वी और चमकदार है । इस रूप का ज्ञान पाकर शांत बैठकर ध्यान मे उसे महसूस करके भरपूर आनंद की अनुभूति होती है ।  ● उसको body नहीं, body नही तो जख्म कहां ? नस-नाडी कहां ?   It's above bodily elements . ● वह शुद्ध है = pure है । वह “पापरहित' है क्यों की वह कभी गलत काम कर ही नहीं सकता । ● वह " कवि " है = वेद काव्य का निर्माण करता है ।  वह " मनीषी " है  = हमारे मन का वही मालिक है स्वामी है ।  ● वह सब जगह मौजूद है  और वह " स्वयंभू " है मतलब कोई उसे पैदा नहीं करता ।  ● जो भी हमारे सारे व्यवहार है; उनका कंट्रोल वही करता है ...

उपनिषद ज्ञान भाग ~ ८ ॐ Upanishad wisdom ।

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उपनिषद भाग ८ ~ सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति ।  सर्व भूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते । ॥ ६॥  यस्मिन्सर्वाणि भूतान्यात्मेवाभूद्विजानतः ।  तत्र॒ को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः ।॥७॥   ● शब्दार्थ - जो इस प्रकार   से सब  पशु, पक्षी, पेड़, पौधे आदि भूतो को आत्मा मे ही देखता है ओर आत्माको इन सब भूतो मे देखता है वह॒ इस विचार के कारण पाप व घृणा नहीं करता ।  ॥६॥  जिस जानने वाले के ज्ञान मे यह सब भूत आत्मवत्‌ हो गये, इसलिये आत्मवत्‌ हो गये क्योकि कण-कण मे ईश ही बसा हुआ है । फिर वहां इन भूतों के अनेकत्व मे आत्मा के एकत्व unity in diversity देखने वाले के  लिए मोह कसा, ओर शोक कैसा ? ॥७॥  भावार्थ - जहां एकत्व - oneness है वहां दूसरे का छीनने, दूसरे का ले लेना निरर्थक हो जाता है और दूसरे की घृणा - hatred भी निरर्थक हो जाती है । जात, पंथ, धर्म आदि कारण से अलगाव जो है; वह धीरे-धीरे घृणा में परिवर्तित होते हैं । और एकत्व से वह घृणा कम हो जाती हैं । ■ आजकल परायापन और स्वार्थ इस कदर बढ़ रहा है कि हम एक दूसरे का छिन ले लेते हैं इतना के हम क...

उपनिषद ग्यान भाग ७ ~

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ॐ तदेजति तन्नेजति तद्‌ दूरे तद्वन्तिके ।  तदन्तरस्य सर्वस्य  तदु सर्वस्यास्य बाह्यत : ।।  इशोपनिषद  ।। ५ ।।  ■ शब्दार्थ - वह चलता है वह नही चलता। वह दूर है वह निकट भी है । वह इसके सबके अंतर मे है और इसके सबके बाहर भी है । ■ भावार्थ : ये जो परब्रह्म है वह हिलता भी नही है फिर भी वह सब को पीछे छोड देता है ।   हमने देखा है के वो परब्रम्ह सभी जगह पर मौजूद है तो हिलेगा कैसे ? हिलने के लिए उसकी जगह ही नहीं है । स्थिर है । भगवद्गीता मे भी आपको लिखा मिलेगा कि परमात्मा स्थिर है / स्थाई है ।  ■ और कहां है की यह सबको पीछे छोड़ देता है । क्योंकि कैसे हैं की यदि आप निकलते हो चाहे जिस वेग से निकले चाहे मन के वेग से निकले अब 1 मिनट के अंदर जहां पहुंचोगे;   उसके पहले ही वह परब्रह्म पहुंच चुका है । क्यों कि वह है ही सब जगह ।   परमात्मा की सर्व व्यापकता और प्रभुता दिखाने के लिए यह श्लोक का चयन मुनियों ने किया था । अभी मन के बारे में देखते हैं - मन बहुत वेगवान है ; उसके जरी ये आप एक क्षण में हम यहां से अमेरिका पहुंच सकते हैं , चांद पर पहुंच ...

उपनिषद ज्ञान भाग ६ ~ Upanishad wisdom for better life.

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■ प्रियजन सबको मेरा प्रणाम. 🙏 उपनिषद ज्ञान भाग ६ ~ ॥ अनेजदेकं मनसो जवीयो नेनदेवा आप्नुवन्पुर्वमर्षवत्‌ ।  तद्धावतोऽन्यानत्येति तिष्ठत्तस्मिन्नपो मातरिष्वा दधति ।४॥  शब्दार्थ : यह परमात्मा कंपन तक नहीं करता फिर भी मन से अधिक वेगवान है, इंद्रिय उसे प्राप्त नहीं कर सकती । वह इंद्रियों से भी पहले वर्तमान है । यह स्थिर है, फिर भी दौड़ते हुए लोगों को व्यक्ति या प्राणी सब को पीछे छोड़ देता है । उसी के कारण वायु जो स्वयं हल्की है अपने से भारी जल को उठा लेती है । भावार्थ - ● कहते हैं कि परमात्मा स्थिर है l आकाश की तरह सभी जगह व्याप्त है तो हिलेगा कंहा ? यह है सब जगह । यह नहीं ऐसी जगह ही नहीं है । तो वह जाएगा कहां और आएगा कहां ? स्थिर है; लेकिन फिर भी मन से भी वेगवान इसलिए है कि वह सब जगह पहुंचा हुआ है । हमारा मन एक क्षण में किसी दूरस्थ सितारे पर जा पहुंचेग। लेकिन वह उसके भी आगे पहलेसे हि है । इसलिये एसा काव्यात्मक भाव से बोला है ।  ● और कहते हैं कि यह परमात्मा प्राप्त करने के लिए इंद्रिय पर्याप्त नहीं है । इंद्रिय मतलब नाक, कान आंख, त्वचा व जिव्हा । यह सब ज्ञान लेने वाली इंद्र...

उपनिषद ज्ञान भाग ५ Upanishad wisdom.

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उपनिषद ग्यान ५ :  ■ प्रियजन को मेरा हार्दीक नमस्कार | 🙏  निष्काम कर्म करने के लिए दो युक्तियां बताई गई है । इसमें एक है कि दूसरे श्लोक में जो बोला था - " जो भी है वह उसीका तो है, मेरा है ही नहीं । " यह बात सोच कर निष्काम हो जाएंगे । जब करने वाला, कराने वाला और फल देने या न देने वाला वही तो है; तो मैं काहे को चिंता करूं ? मेरा कुछ है ही नहीं.. इसलिए फल से भी मैं बंधा नहीं हूं । यह एक तरीका है ।  दूसरा तरीका है कि जो भी मैंने किया है हर एक चीज उसको समर्पित कर देना । यदि मैं खाता हूं तो पहले उसे नैवेद्य दिखाना - समर्पण करना । और यदि मैं सक्सेसफुल हो जाता हूं यशस्वी हो जाता हूं तो वह भी उसी के कारण है तो उसी को अर्पित है । हर एक चीज उसको अर्पण करना ।  यह कर्म फलों को त्याग करने की युक्तियां हैं । वैसे ही कर्म फल को त्यागना आसान बात नहीं होगी । □ असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृताः \  ता स्ते प्रत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः \\३ जो अपनी आत्मा का हनन करते हैं वे लोग मरने के बाद अंधकार से आवृत " असूर्य "लोक स्थान पर में पहुंच जाते हैं । जो लोग गलत काम करते ...

उपनिषद ज्ञान भाग ४ । upanishad wisdom for happiness.

📃 उपनिषद ज्ञान भाग ४ : ईशावास्य उपनिषद -  कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत. समाः ।  एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कमं लिप्यते नरे ॥२॥) ।  सरल अर्थ है - हर मनुष्य को कर्म करते हुए 100 साल जीने की आकांक्षा करनी चाहिए । इसके अलावा दूसरा कोई मार्ग नहीं है । और ऐसा करेंगे तो कर्म का लेप नहीं होगा ।  卐 पहली पंक्ति में बहुत बातें आती हैं ।  ● एक - काम करो कर्म करते रहो । ● दूसरी -100 साल तक / दीर्घकाल जियो और कर्म करते रहो ।  ● तीसरी यदि आपको दीर्घकाल कर्म करते हुए जीना है तो स्वस्थ जीवन की जरूरत है ।  ■ पहले पंक्ति को सम अप करेंगे : स्वस्थ रहो, दीर्घकाल जियो और कर्म करते हुए जियो । 卐 दूसरे पंक्ति मे यह प्यार से बोला है; कि यह आपको मैंडेटरी है / कंपलसरी है । लेकिन यह कंपल्शन प्यार से होता है यदि आप आराम करते बैठो तो कोई आकर आपको मारने वाला तो है नहीं । ● युवाओं के लिए जबरदस्त प्रेरणा दी है । जीवन का उद्देश्य ही दे दिया । work is worship. काम से जब हम बोअर हो जाते हैं, थक जाते हैं तो मनोरंजन की तो जरूरत है । वह करना भी चाहिए लेकिन वोही करते रहेंगे या उसकी मात...