उपनिषद ज्ञान भाग ~१८ ईशावास्य उपनिषद का समापन व सार.

● उपनिषद ज्ञान भाग ~ १८ 
ईशावास्य उपनिषद श्लोक ~ १८ 
( अंतिम श्लोक )
अग्ने नय सुपथा राये अस्मान्विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्‌ । 
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेम ॥१८॥
 ○ हे अग्ने, हे देव; तुम सब प्रकार के कर्मो को जानते हो ।
तुम हमे उन्नति के लिये ऐसे मार्ग से ले चलो जो सुपथ हो । जो कुटिल पाप-मार्ग है उसे हमसे अन्तरात्मा का युद्ध कराकर पृथक्‌ / अलग करो । 
हम बार-बार तुझे नमस्कार करते हैं ।
अपने अंतिम सांस गिनने वाले मुनिवर जो बातें करते हैं; उसका इस श्लोक में समापन हो जाता है । अब थोड़े ही देर में जब प्राण चले जाएंगे तो अग्नि से शरीर का भस्म होने वाला है । इसलिए वह अग्नि से ही प्रार्थना करते हैं कि; हे अग्नि देवता - आप मेरे अंदर ऐसा बदलाव कराओ के पाप का कोई विचार ना रहे ।
यह बात बाकी जीवन के लिए भी लागू है; की अग्नि से प्रार्थना हो के; जला दो मेरे कुकर्मों को, जला दे बुरे विचारों को ... और मुझे ले चलो अच्छे कर्मों के पथ पर ।
हे अग्नि देव मुझे सद् कर्म के लिए अच्छे विचार और वैसी कृति दे दे और मुझे पाप मार्ग से दूर हटा दे । यह है हमारी प्रार्थना ।
यदि ऐसा होगा तो हमारे धर्म में जो अंतिम प्रवास माना जाता है - सद्गति माना जाता है - वह भी इसमें अनुस्यूत है कि; जीवन में मुझसे ऐसे ऐसे अच्छे काम होंगे कि मेरी आत्मा को सद्गति मिल जाएगी !
उपसंहार : Summary:
● १. इस उपनिषद्‌ मे द्वन्द्व का समन्वय किया गया है; कहीं हम एकांगी ना बन जाए इसलिए उपदेश किया है ।
प्रकृति- पुरुष, भोग-त्याग, कर्म -निष्कर्म, व्यक्ति-समाज, अविद्या-विद्या, भौतिक-अध्यात्म, कर्म-ज्ञान, मुत्यु-जन्म, विनाश-उत्पत्ति, सगुण ब्रह्म - निर्गुण ब्रह्म। 
--इन सब का समन्वय ही यथार्थ -दृष्टि है । मानव-समाज की प्रवृत्ति एकांगी दिखाई देती है । 
कुछ लोग भोगके पीछे कुछ त्याग के पीछे, 
कुछ लोग इहलोक कुछ लोग परलोक, 
कुछ 
लोग अविद्या कुछ विद्या, 
कुछ व्यक्तिवाद कुछ समष्टिवाद के 
पीछे दौड़ते हैं । 
लेकिन वह गलत है ।
उपनिषत्कारोंकी दृष्टि समन्वयात्मक है । 
● २. इस संसारके कण-कण मे भगवान्‌ के दर्शन करना । दीखने को तो यह भौतिक- जगत्‌ दीखता है, परन्तु इसके
कण-कण मे वह परब्रह्म छिपा है, वही इस सबका मालिक है । 
हमें चाहिए कि हम खुद मालिक ना बनाकर उस मलिक का दिया हुआ काम करें और उसने दिये हुए भोग का उपभोग कर ले । किसी का कुछ न छीने ।
इस उपनिषद का यह महत्वपूर्ण मार्गदर्शन है  । 
इसका हमारे जीवन में हम बहुत ही उपयोग  कर सकते हैं । 
उपनिषद पूर्ण हो गया । बहुत-बहुत धन्यवाद । मिलते रहेंगे ।
ओम तत् सत् इति ब्रह्मार्पणमस्तु । [ मतलब सब कुछ उसी का है उसी को अर्पण। ]
हरि 🕉️ तत्सत् ।।
आपका अपना, डॉक्टर प्रसाद फाटक. पुणे. भारत.
9822697288
 तेरे द्वार पर श्रद्धा सुमन है अर्पित

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