kalash

कलश
मेरे अपनो, सुह्रुदो बुन्द आसुकि बस एक हि बहाओ
अस्थियों को मेरे मान्डवी मे छोड आओ
जगह ऐसी हो जहां आसपास कुछ पेड हो
जनम यदी लेना है फिरसे तो झटके से इक
पन्छि के ह्रुदय मे मै घुस जांउ
इस जहां से ’उस’ जहां तक पलमे मै पहुच जाउं
दूर ना हो वो जगह के ऐसे
छलान्ग भर मे अपने बाप से मैं मिल ना पावु
लहरोन्से उसके खेलकर कुछ पेट मे मैं समा सकुं
गहेरे अन्तर में ’जो रतन हैं’ उनको माथे पे लगाउं
तेज ग्यान के उसके किरणों से खुद हि मैं खिल उठु
कुछ ना हुअ तो बस लाडलो यों न घबराना
टुकडे को कागज के इस
कलश के कपडे कि जगह बान्ध देना
काव्यकार : प्रसाद फाटक

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